
दिल्ली हाई कोर्ट ने वो कहा जो सब सोच रहे थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे—अगर किसी आरोपी में कोरोना वायरस था ही नहीं, तो उस पर बीमारी फैलाने का केस क्यों?
ईश्वर को त्याग बाबा को अपनाया, फिर पूछते हैं – समाज इतना गिर क्यों गया ?
70 भारतीयों की एफआईआर रद्द, वकील ने कहा- ‘इनका दोष सिर्फ ठहराना था!’
मार्च 2020, जब पूरा देश लॉकडाउन में सांस गिन रहा था, दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ में तब्लीगी जमात का धार्मिक आयोजन सुर्खियों में आया।
इसके बाद 70 भारतीय नागरिकों पर कोरोना पाबंदियों के उल्लंघन का केस दर्ज हुआ। अब ADGMO मोड में आए दिल्ली हाईकोर्ट ने केस रद्द करते हुए कहा—“किसी के पास कोविड था ही नहीं, तो आरोप का आधार क्या है?”
वकील आशिमा मांडला ने अदालत में कहा,
“चार्जशीट में एक लाइन नहीं है कि इन 70 लोगों में किसी को भी कोरोना था।”
साइंटिफिक सटायर: कोविड ने भी कहा—‘मुझे नहीं बुलाया गया था!’
बयान के बाद सोशल मीडिया पर फनी रिएक्शन आने लगे— “कोविड भी शॉक में है, बोले- ‘मैं तो वहां गया ही नहीं, नाम क्यों बदनाम कर रहे हो?’”
2020 में बनाया गया था हॉटस्पॉट, लेकिन हकीकत में ‘स्पॉट’ ही गलत था?
मरकज़ को उस समय कोरोना का हॉटस्पॉट बताया गया था, जब वहां मौजूद 24 लोग पॉज़िटिव निकले। मगर कोर्ट ने माना कि 70 भारतीयों में किसी के पास वायरस नहीं था, ना ही कोई सबूत था कि इन्होंने नियम तोड़े।
मतलब, जो पकड़ा गया वो बेगुनाह, और जो असली पॉज़िटिव थे वो हवा में उड़ गए!
फैसले से क्या सीखा जा सकता है?
इस फैसले ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं:
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क्या महामारी की आड़ में समुदाय विशेष को टारगेट किया गया?
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क्या पुलिस और प्रशासन को बिना ठोस सबूत केस दर्ज करने की इतनी जल्दी थी?
विदेशी जमाती अब भी केस झेल रहे हैं?
955 विदेशी नागरिकों पर अब भी केस चल रहे हैं, जिन पर विदेशी अधिनियम और महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा है।
अब देखना है कि कोर्ट इन मामलों में क्या रुख अपनाता है।
क्या अगली सुनवाई में कोई कहेगा—
“पासपोर्ट से वायरस नहीं निकलता साहब, पैनिक से निकला था!”
सज़ा नहीं, न्याय चाहिए!
2020 में तब्लीगी जमात से जुड़े मुद्दे ने देश को दो हिस्सों में बांट दिया था—एक तरफ डर, दूसरी तरफ राजनीति।
अब जबकि कोर्ट ने न्याय का रास्ता दिखाया है, उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में “पैनिक-ड्रिवन पेनाल्टी” का युग खत्म होगा।
फैसला देरी से आया, मगर आया सही वक्त पर!
दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला न सिर्फ कानूनी समझदारी का उदाहरण है, बल्कि समाज में फैली भ्रांतियों को खत्म करने का संकेत भी।
शायद अब वक्त है कि “बीमारी से नहीं, बिना सोचे-समझे फैसलों से डरें!”
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